२०–२१ शताब्दी के लगभग सभी भाषा शास्त्री के कृत्यों को अपने ग्रंथ से प्रभावित करने वाले, संस्कृत भाषा को व्याकरणिक रुप देने वाले.... संस्कृत भाषा के महान व्याकरण शास्त्री ऋषि "पाणिनी" जिनका जन्म लगभग ३५०–७०० ई.पू. के मध्य, पाकिस्तान के शालतुरा में हुआ था। पाणिनी के जन्मकाल के विषय में काफ़ी मतभेद हैं, लेकिन अधिकांश विद्वान; बौद्ध–ब्राह्मण साहित्य के अनुसार उनका काल "नंदवंश" के समकालीन बताते हैं। नंदवंशीय सम्राट महापद्मनंद के पिता "नंद" महर्षि पाणिनी के मित्र कहे जाते हैं ।
पाणिनी ने देवों की भाषा मानी जाने वाली उच्च-मानक भाषा का एक ऐसा अद्वितीय व्याकरण अष्टाध्यायी ग्रंथ रचा, जिसने आज तक उपलब्ध सभी अन्य व्याकरण-मूलत कृतियों को घुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया। चीनी यात्री ह्वेन त्सियांग के यात्रा-विवरण में उन्होंने पाणिनी के सूत्रों को "वत्तिसूत्र" कहा है । उनके विवरण में उन्होंने पाणिनी के जन्म स्थान का भी उल्लेख किया है, जो एक पौराणिक कथा का वर्णन करती है जिसे उन्होंने शालतुरा (आज का लाहौर) में सुना था, । ७ शताब्दी के एक तांबे की शिलालेख में पाणिनी को "शालतुरा का मानस" कहना, ह्वेन त्सियांग के उल्लेख को प्रमाणित करता है। पाणिनी का उल्लेख पंचतंत्र की एक कहानी में भी होता हैं जिसमें उनकी मृत्यु का कारण सिंह (शेर) को बताया गया है ।
सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत् प्राणान् मुनेः पाणिनेः ।
पाणिनि से पहले भी कई व्याकरण–शास्त्री अस्तित्व में थे, उन्होंने इंद्र से लेकर कश्यप/भारद्वाज/गालब जैसे व्याकरण शास्त्री का उल्लेख किया है ।
पाणिनि मूल देवनागरी भाषा को नियमों के एक सटीक ढांचे में जोड़ने में सक्षम थे, यही कारण था कि पाणिनि ने उनसे पहले मौजूद विद्वानों के कार्यों को संकलित कर व्यवस्थित रूप से उनका अन्वेषण करके, उसे औपचारिक रूप प्रदान किया ।
पाणिनि के अष्टाध्यायी की संस्कृत के व्यावहारिक विश्लेषण एवं आचार्य कृतत्व के लिए सर्वत्र प्रशंसा की जाती है। अष्टाध्यायी ने भाषा विज्ञान और ज्ञान की अन्य शाखाओं के (विशेष रूप से दर्शनशास्त्र और अभिकलन क्रमादेशन) क्षेत्रो के विकास को प्रभावित किया।
पाणिनी के सु–व्यवस्थित व्याकरण रचना के संदर्भ में कहा गया है कि :
पाणिनीयं महा”ास्त्रं पद साधुत्वलक्षणम् ।
सर्वोपकारकं ग्राह्यं कृत्स्नं त्याज्यं न किञ्चन् । ।
अष्टाध्यायी में ३९७८ सूत्रों एवं १४ प्रत्याहार–सूत्रों के द्वारा विशेष नियमों को चिह्नित किया गया है, जो कि वैदिक शास्त्रों की भाषा को वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित करती हैं !
अष्टाध्यायी सूत्र ग्रंथ को ८ अध्यायों में लिखा गया है, जिसके प्रत्येक अध्याय को ४–४ पदों में वैज्ञानिक आधार से विभक्त किया गया है। अष्टाध्यायी के पहले अध्याय के प्रथम पाद से ही सूत्रसंख्या में प्रत्यक्ष निदर्शन है जो दूसरे अध्याय में आते–आते प्रत्याहार सूत्रों में अन्यतर के पाणिनिसूत्रत्व एवम् तदभाव के वैमत्य के अनुसार परस्पर-भिन्न हो जाती है। तीसरे अध्याय में धातु और शब्द सिद्धि के बारे में चर्चा की गई हैं, चौथे और पांचवें अध्याय में प्रतिपादक का वर्णन है, छठे एवं सातवे अध्याय में प्रकृति प्रत्ययात्मकता–स्वर सिद्धि आदि का उल्लेख है और अंतिम अध्याय में सन्निधि – वर्णोचारण – स्वर में होने वाले परिवर्तन का वर्णन है !
पाणिनी ने अपने अन्वेषण एवं अध्ययन से अष्टाध्यायी के द्वारा एक नए वैज्ञानिक व्याकरण की रचना की । अष्टाध्यायी में कुछ अनेकाक्षर प्राविधिक शब्दों का प्रयोग किया है जिन्हें आज हम "संज्ञा" के रूप में पढ़ते हैं ।
उदहारण :
अर्थवदधातुरप्रत्यय:प्रातिपदीकम्
शि सर्वनाम स्थानम्
सर्वादिनी सर्वनामानि
इग्यण: सम्प्रसारणम्
व्याकरण की शिष्ट परंपरा का निर्वाह करते हुए पाणिनी ने अष्टाध्यायी में अपने आवश्यकता के अनुसार ही सूत्रो की रचना की । पाणिनि के सूत्रों की शैली अत्यंत संक्षिप्त है। पाणिनि के सूत्रों को प्रतिष्णात सूत्र कहा गया है। पाणिनि ने वर्ण या वर्णमाला को १४ प्रत्याहार सूत्रों में बाँटा और उन्हें विशेष क्रम देकर ४२ प्रत्याहार सूत्र बनाए। इन्हीं के आधार पर आज की संस्कृति वर्णमाला के वर्ण आधारित है ।
पाणिनि की सबसे बड़ी विशेषता यही है जिससे वे थोड़े स्थान में अधिक सामग्री भर सके। यदि अष्टाध्यायी के अक्षरों को गिना जाय तो उसके ३९९५ सूत्र एक सहस्र श्लोक के बराबर होते हैं। पाणिनि ने संक्षिप्त ग्रंथरचना की और भी कई युक्तियाँ निकाली जैसे अधिकार और अनुवृत्ति अर्थात् सूत्र के एक या कई शब्दों को आगे के सूत्रों में ले जाना जिससे उन्हें दोहराना न पड़े। उन्होंने असिद्ध सूत्रों में एक विष्टि युक्ति निकालीं। अर्थात् उनके युक्ति के अनुसार बाद का सूत्र अपने से पहले के सूत्र के कार्य को ओझल कर देता । पाणिनि का यह असिद्ध नियम उनकी ऐसी तंत्र युक्ति थी जो संसार के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं पाई जाती।
अष्टाध्यायी में पाणिनी ने प्रत्ययों का वर्णन करते हुए उनके मुख्य अर्थों को केंद्रित किया है.... उन्होंने कुछ निष्पादक प्रत्ययों (सन्, क्यच्) के विशेष अर्थों को भी रेखांकित किया है ! अष्टाध्यायी व्याकरण का आधार "लाघव युक्त लेखन प्रणाली" हैं, उन्होंने इस ग्रंथ के जरिए लगभग हर शब्द को लघुत्तम रुप से आख्यांकित कर दिया है । पाणिनि ने अष्टाध्यायी में अनुबन्धों का खूबसूरत प्रयोग किया है। धातुओं और प्रत्ययों में इन अनुबन्धों का प्रयोग कर; उन्हें शब्द की रचना के लिए निर्देशक का रुप दिया । पाणिनि ने अनुबन्ध की योजना गुण वृद्धि, आगम आदि विशेष कार्य को निमित्त करा हैं
पाणिनी की लेखन योजना को निम्नलिखित श्लोक काफ़ी हद तक समझने में सहायता करता है :
शब्दानुशासनमिदानी कर्तव्यम् । तत् कथं कर्तव्यम्
किञ्चित् सामान्य विशेषवल्लक्षणं प्रवर्त्यम्
पाणिनी के अष्टाध्यायी में कुछ प्रविधियां ऐसी हैं जो शिव–सूत्र में प्रदर्शित रैखिक व्यवस्था, पदानुक्रमित संबंधों का रैखिक प्रतिनिधित्व जैसी जटिल प्रणाली से काफी हद तक मेल खाती है ।
शिव–सूत्र
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥
कुछ वैदिक शास्त्री मानते हैं कि पाणिनी के व्याकरण के प्रवर्तक भगवान् नटराज है। कहा जाता हैं कि महर्षि पाणिनि ने ये सूत्र देवाधिदेव महाकाल जी के आशीर्वाद से प्राप्त किये जो कि अष्टाध्यायी के आधार हैं ।
वो चौदह सूत्र निम्नलिखित हैं :
१. अइउण्
२. ऋलृक्
३. एओइ
४. ऐऔच्
५. हयवरट्
६. लण्
७. ञमङणनम्
८. झभञ्
९. घढधष्
१०. जबगडदश्
११. खफछठथचटतव्
१२. कपय
१३. शषसर्
१४. हल्
यद्यपि न्याय सूत्र और ब्रह्म सूत्र में जिस प्रकार एक हेतु और एक उदाहरण होता है, वो तार्किक तर्क का अष्टाध्यायी में पूर्ण अभाव हैं । पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी में कभी भी क्यों – क्या ? का प्रयोग नहीं हैं। अष्टाध्यायी के सूत्र "प्रश्न के उत्तर" में भाषाई तथ्यों के बयान हैं.... उनमें भाषा के तथ्यों का उल्लेख किए बिना ही व्याख्या मात्र है।
हालांकि पाणिनि अष्टाध्यायी और वेद के बीच के संबंध पर बहुत बहस हुई है। इस बहस की अंतर्निहित पूर्वधारणा यह मानी जाती हैं कि पाणिनि से पहले वैदिक साहित्य अपने वर्तमान स्वरूप में मौजूद था। फिर भी, वैदिक विद्वानों का मानना है कि
"पाणिनी के व्याकरण का जन्म वेदों की भाषागत रक्षा की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए ही हुआ है।"
समय के साथ साथ उनके ग्रंथ अष्टाध्यायी की कई विद्वानों ने समीक्षा करी, इसी दौरान ग्रंथ में कई परिवर्तन और अनुकूलन प्रस्तावित किए गए हैं ।
अष्टाध्यायी सूत्रों का समूह आज के अभिकलन क्रमादेशन के समान है, जिसमे सिर्फ एक प्रमुख अंतर हैं ; ये क्रमादेशन (अष्टाध्यायी) एक मनुष्य के द्वारा लिखा गया था, न कि मशीन के द्वारा। पाणिनी ने अपने ग्रंथ में संस्कृत की ज्ञान को संकेतबद्ध करने पर अत्यधिक ध्यान दिया और उन्होंने इस अंतर्दृष्टि का उपयोग न केवल संस्कृत के व्याकरण का वर्णन करने के लिए किया बल्कि उन्होंने संस्कृत के व्याकरण को तैयार करने के लिए अपनी अधिभाषा में इन विशेषताओं का भी उपयोग किया। २० शताब्दी के शुरुआत में जब भाषाविज्ञान का उद्भव हुआ, उसी समय भाषाविदों ने पाणिनि की अष्टाध्यायी के महत्व को पहचानना शुरू भी कर दिया था। प्रसिद्ध जर्मन भाषाविद्वान मैक्स मुलर ने अपनी पुस्तक ( साइंस ऑफ थॉट) में कहा था कि :
"मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके। इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि २,५०,००० शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है। अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का ८०० धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक विश्लेषण के बाद अविशष्ट १२१ मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके।"
अब आज के समय के प्रौद्योगिक के साथ, अभिकलन क्रमादेशन विद्वानों ने पाणिनी की अष्टाध्यायी को सीखना शुरू कर दिया है; पाणिनी ने जिस तरह से नियम बनाए हैं, एवं उन नियमों को लागू करने के लिए जिस निरूपक अधिभाषा का इस्तेमाल किया है, वो आज के प्रौद्योगिक संघर्ष का सार्वभौमिक समाधान का मॉडल पेश करती हैं ।
निरूपक अधिभाषा का उपयोग सुलभ व्याख्या में और अधिक चुनौतियां खड़ी कर देता है...क्योंकि, पाणिनि सामान्य संस्कृत भाषा को सूत्र में निरूपक अधिभाषा के साथ मिलाते हुए सूत्रों की यंत्रवत् रचना करते हैं । पाणिनी व्याकरण के प्रौद्योगिक अधिभाषा आज विश्लेषण के गहरे स्तर को परिभाषित करता है, उनका व्याकरण अभिलंकन संरचना की परिभाषा में शब्दकोष के कुछ हिस्सों को प्रभावित करते हुए अन्य भाषाओं के बीच निकटता को साझा करती है ! पश्चिमी भाष्यकारों ने इनके नियमों, जड़ों और अन्य शाब्दिक प्रतिरूपो को विभिन्न रूपों से स्वीकार किया । इन समीक्षाओं ने पाणिनि के अष्टाध्यायी के विभिन्न व्याख्याओं को जन्म दिया, और आज कई अन्य भाषाओं के व्याकरण प्रकट हुए हैं, वे बड़े पैमाने पर पाणिनी के व्याकरण से व्युत्पन्न और प्रेरित हैं !
बीसवीं शताब्दी के दो भाषा विद्वान "डॉ. ब्लुमफ़िल्ड और डॉ. हॅरीस" ने पाणिनी के अष्टाध्यायी की सहायता से “अंग्रेज़ी भाषा वैज्ञानिकी” के अनेक सिद्धान्त की खोज करी थी, फिर आगे चलकर इन्हीं पाणिनी सिद्धांतो का उपयोग संगणक संचालक प्रक्रियाओं में किया जाने लगा।
नाओम चोम्स्की (आधुनिक भाषा वैज्ञानिक) ने पाणिनि व्याकरण की प्रक्रियाओं का अध्य्यन करके एवं उनके पुनरावर्ती सिद्धांत को ही आधार बनाकर ने जेनरेटिव व्याकरण और जनन शील प्रक्रियाओं का निर्माण किया। पाणिनि के अष्टाध्यायी पर दार्शनिक भर्तृहरि के समीक्षा से आधुनिक भाषा विज्ञान के जनक फॉडिलैंड डी सस्यूर काफ़ी प्रभावित हुए, उन्होंने अपने कुछ विचारों पर पाणिनी के व्याकरण के प्रभाव का उल्लेख भी किया। १८८१ में रचित अपने ग्रंथ (ऑन द यूस ऑफ द जेनेटिव अब्सोलुइट इन संस्कृत) उन्होंने विशेष रूप से पाणिनी को अपने काम को आभार प्रकट किया है ।
पाणिनी का अष्टाध्यायी व्याकरण, कठोरता और सटीकता में अन्य सभी मौजूद व्याकरण-मूलत कृतियों को पार करते हुए, उनका भी मानक बना और आज तक निर्विवाद रूप से बना हुआ है। अपनी अष्टाध्यायी के जरिए ही, पाणिनी ने, संस्कृत को उस समय के आम लोगों के बीच शामिल किया और परिष्कृत किया।
अगर संस्कृत की समस्त शब्द संपदा नष्ट हो जाए तो भी अष्टाध्यायी के द्वारा उसका पुनर्जन्म हो सकता हैं
इस कथन से अष्टाध्यायी की महत्ता का आकलन किया जा सकता हैं !
अष्टाध्यायी के अतिरिक्त पाणिनी ने धातुपाठ, गणपाठ, उनादिकोश आदि ग्रंथों की भी रचना की है, ये ग्रंथ वस्तुत: अष्टाध्यायी के परिशिष्ट है।
पिछले दशकों में भारत और पश्चिम दोनों में पाणिनियन अध्ययनों का पुनरुद्धार देखा गया है। आज ये पुरातात्त्विक रुचि से लेकर उनके व्याकरणिक सिद्धांत और विवरण की पद्धति पर अध्ययन तक फैला हुआ है।
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अभिषेक उपाध्याय
टीम जियोस्ट्रेटा
बी ए प्रोग्राम, द्वितीय वर्ष
हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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